नया संसद भवन’ नए भारत का ‘उदय’

28 मई, 2023 भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा, जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सेंगोल’ को दंडवत प्रणाम कर, मंत्र उच्चारण के बाद, लोकतन्त्र के मन्दिर ‘संसद भवन’ को देशवासियों को समर्पित किया। पूजन का पवित्र कार्य, तमिलनाडु से ‘गैर ब्राह्मण’ संतों ने किया। यह भवन देश की 140 करोड़ जनता के मान-सम्मान के प्रतीक के साथ-साथ नए भारत की आकांक्षाओं की आशा का केन्द्र है। भवन को मात्र 29 महीनों की छोटी सी समयावधि में, शुद्ध रूप से भारत के इंजीनियरों ने बनाया है। 

इतनी तेजी से संसद भवन का निर्माण भारत के विकास के पथ पर तेज गति से अग्रसर होने का प्रत्यक्ष उदाहरण भी है। देश के लगभग सभी प्रदेशों के योगदान से, वहां की खास वस्तु को इस भवन के निर्माण में इस्तेमाल करके, सब के प्रयास की भावना को प्रकट किया गया है।

नया भवन जहां अंग्रेजों की दासता को मन मस्तिष्क से उतार कर आजादी का एहसास करवाता है, वहीं हमारे अतीत और विरासत की कहानी भी बयां करता है। कई विदेशी अखबार अक्सर लिखते रहे हैं कि आजाद भारत 77 वर्षों में अपनी पार्लियामैंट तक नहीं बना पाया। देश की पहले की सरकारों ने इसकी जरूरत महसूस की थी, परन्तु बुलन्द इरादों के धनी, आदरणीय मोदी जी ने ही इस सपने को साकार करके दिखाया। 

वैसे तो भारत द्वारा इण्डिया गेट से किंग जॉर्ज पंचम के बुत को उतार कर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा स्थापित करना तथा मोदी सरकार ने ‘राजपथ’ को ‘कत्र्तव्य पथ’ करने आदि अनेक कार्यों से गुलामी के दंश को समाप्त करने का हर संभव प्रयास किया है, वहीं नए संसद भवन के निर्माण ने इस में मील के पत्थर का काम किया है। नया भवन नई सोच, नई उमंग और नए भारत की ही नहीं, विश्व के मांगलिक भविष्य की आधारशिला भी है। यह भवन राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र सम्मान, और राष्ट्र गौरव का जीता-जागता प्रतिबिंब है।

गौमुख का आभास करवाते इस भवन के गुंबद पर राष्ट्र चिन्ह, राष्ट्र पक्षी मोर, राष्ट्र फूल ‘कमल’ के थीम, महापुरुषों की अलग-अलग तरह से गाथाओं की प्रस्तुति, अखण्ड भारत का नक्शा इस सपने को सच करने की प्रेरणा से भरपूर, पग-पग पर भारत माता की गौरव गाथा गाने और उस पर कार्यरत होने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। यह भवन भारत के अतीत से वर्तमान तक के सफर के दर्शन भी करवाता है।

ऋषियों-मुनियों की इस पावन पवित्र भूमि पर सदियों से यहां के शासक को राज करने की शक्तियां परमात्मा द्वारा दिए उपहार स्वरूप मानी जाती हैं और उसको धर्म अनुसार चलाने के लिए ‘राजदण्ड’ की व्यवस्था रही है। ऐसा धार्मिक चिन्ह ‘सेंगोल’, जो कि लोकसभा में अध्यक्ष के अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरित करते हुए औपचारिक रूप में नेहरू जी को सौंपा गया था, ऐसे राष्ट्रीय गौरव को संसद भवन में स्थापित करके मोदी जी ने देश की मान्यताओं और सभ्यता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रकट की है।

यह दण्ड देश चलाने वाले नेतृत्व को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास भी करवाता रहेगा और उन्हें धर्म अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित भी करेगा। विदेशी शासकों द्वारा ताजमहल बनाने वाले कारीगरों के हाथ काट कर, कलंकित करने वाली इस धरा पर, अपना पसीना बहा कर इस भवन की सुन्दरता में चार चांद लगाने वाले, 60,000 कारीगरों को सम्मान दे कर, उस पाप को धोने का पवित्र कार्य भी प्रधानमंत्री जी ने किया है। 

चीन, जो कि भारत का घोर विरोधी है, उसके मुखपत्र सरकारी अख़बार ‘ग्लोबल टाइम्स’ की पूरी टीम ने इस संसद भवन के निर्माण को लेकर भारत की तारीफों के पुल बांधे हैं तथा भारत को कोलोनियल काल से बाहर निकल कर, आजाद देश की मानसिकता की ओर बढ़ाया एक मजबूत कदम तथा आत्म निर्भर भारत का सूर्य उदय होना बताया है। दुनिया के अनेक देशों ने नरेन्द्र मोदी जी तथा उनकी सरकार को बधाई दी है। उद्घाटन के इस शुभ अवसर पर सभी धर्मों द्वारा विधिपूर्वक पूजन करवा कर प्रधानमंत्री जी ने यह प्रमाण भी दे दिया कि भाजपा आज देश की सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी, सर्वमान्य तथा समावेशी पार्टी है, जो सभी धर्मों और पंथों का समान रूप से आदर और सम्मान करती है। ऐसा करते हुए सरकार ने जहां विरोधियों द्वारा फैलाए उस झूठ का पर्दाफाश भी किया कि भाजपा अल्पसंख्यक या दलित विरोधी है, वहीं यह भी साबित किया कि राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि है। 

परन्तु देश में, कुछ विपक्षी दलों, उनके समर्थक, बुद्धिजीवी तथा लेखकों ने इन गौरवमयी क्षणों को हल्की राजनीति की वेदी पर चढ़ा दिया। इस भवन की शुरुआती योजना की चर्चा से लेकर, भवन के उद्घाटन तक, विपक्ष ने सस्ती लोकप्रियता के लिए, अलग-अलग मुद्दों पर सवाल खड़े करके, इस योजना को रोकने का हर सम्भव प्रयास किया। जिस संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए सभी राजनेता एवं राजनीतिक दल हमेशा कार्यरत रहते हों, उसका विरोध मानसिक कमजोरी नहीं तो और क्या है? जो ‘राम’ देश के कण कण में बसे हों, उनके मन्दिर का, जिस सेंगोल का इतिहास हमारे अतीत ‘चोल’ साम्राज्य से वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू से जुड़ा हो, उस विरासत का, जो भवन देश के लोकतन्त्र का मन्दिर हो उस भवन के विरोध को राजनीतिक विरोध तो कतई नहीं कहा जा सकता।

नरेंद्र कुमार

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